एक श्रमिक को मैंने देखा,
लुंगी, गंजी, कंधे गमछा ,
हाथ में घंटी टन-टन करता,
चला जा रहा मतवाला सा,
नहीं किसी की फिकर वो करता,
कोई भले ही कुछ भी कहता,
इस कर्म को क्या मै कहता?
कर रहा है ये श्रम या सेवा?
नहीं है इसको फल की चिंता,
खुद पैदल पर मुझे वो रथ पर,
ले केर चला जहा है जाना,
बात वो मेरी एक ना माना,
कहा यही है मेरा जीवन,
इसी से चलता मेरा परिजन,
कैसे छोरुं क्यों भूलू मै,
मेरी तो पहचान यही है,
श्रम मेरा सम्मान यही है,
मेरा तो अभिमान यही है,
श्रम को सेवा समझ के करना,
मैंने सिखा उससे वरना,
दुनिया ये चलती है कैसे?
निश्चय ही है श्रमिक भी ऐसे,
नहीं तो किशको कोण पूछता?
सब अपना ही दर्द ढूंढता, सब अपना ही दर्द ढूंढता ...........
पंकज
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