गुरुवार, 19 जून 2014

हम बुरबकहा बात की बुझब,
एक स एक पढुवा आहि ठाम,
ककरो कियो मोजर नई करइ,
बदैल रहल अइछ मिथिला धाम।

हम अधलाहा कान थोपी कS,
सुनी रहल छी भजन अजान,
मुदा मोजर बस ओकरे छई जे,
गप सँ हरी लेत दोषरक प्राण।  

नई बाजू यो गोरका कक्का,
बाप पित्ती के नई कोनो मान,
किछु कहबई तँ झट स थुकि देत,
देहे पर ओ खा का पान।

धीया-पुता की बरका-जेठका,
एकहि ढठा एकहि शान,
खखइश दियउ त प्राण अवग्रह,
क देत सबटा बजा समांग।

की ई ओ मिथिला छई जक्कर,
करइ छलौ हम सब गुमान,
बरको भइया के देखिते सब,
पर जाइत छल छोइर दलान।

"पंकज"